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कविता

मैं हूँ तीस्ता नदी

शार्दुला झा नोगजा


मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग-अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा

'पत्थरों पे उछल के संभलना सखी’
मुझसे हँस के कहा इक बुरुँश फूल ने
अपनी चाँदी की पायल मुझे दे गई
मुझसे बातें करी जब नरम धूप ने

मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गई मलयजें
मुझसे ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
होके कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें

कितने धर्मों के पाँव मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझमें आ घुल गई
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले

झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गई
चीड़ ने देख मुझ में सँवारा बदन
आप आए तो मुझमें ज्यों जाँ आ गई
आपसे मिलके मेरे भरे ये नयन
मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई !

 


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